मैंने कायनात के हर ज़र्रे में अपने माशूक की तलाश की, कभी वह ज़ाहिर था, कभी छुपा हुआ, एक ऐसी रूहानी हस्ती जो इस दुनिया की हदों से परे है। ज़िंदगी के हर उतार-चढ़ाव में, फानी और ला-फानी दोनों दुनियाओं में, मुझे उस लाजवाब मोहब्बत के निशान नज़र आए। माशूक की यह ख्वाहिश थी कि वह मेरी आँखों से खुद को देखे, मुझे अनगिनत तरीकों से अपनी मर्जी के मुताबिक ढाले, और अपनी हर मखलूक में अपना जलवा देखे। जैसे कोई फूल खुशी से खिल उठता है या बुलबुल वज्द में गीत गाती है, माशूक ने खुद को बेशुमार रूपों में ज़ाहिर किया। किसी शमा और परवाने की तरह, उसने अपनी ही रोशनी में खुद को फना कर दिया। हकीकत की राह में, उसने कठिन इम्तिहानों का सामना किया, फिर भी हर दोई से बुलंद रहा, कभी बादशाह तो कभी फकीर, कभी जाहिद तो कभी रिंद। कभी आशिक के रूप में उसने तड़पता हुआ दिल अपने सीने में रखा, तो कभी माशूक बनकर अपने अंदर मोहब्बत और इबादत की लौ जलाई। माशूक सब कुछ है, हर चेहरे का जौहर, हर तड़प और हर तलाश का राज़-ए-सरबस्ता।
इश्क़-ए-इलाही वजूद-ए-कायनात का असली जौहर है, एक ऐसी अमर ताक़त जो इस दुनिया की सारी हदों से परे है, और रूह में एक ऐसी तड़प पैदा करती है जो कभी ठंडी नहीं पड़ती। यह वह शोला है जो शायरों और सूफ़ियों के दिलों में भड़कता है, और उन्हें माशूक़-ए-हक़ीक़ी, जो सारे हुस्न और सच्चाई का स्रोत है, से वसल की चाह पर उकसाता है। मौलाना रूमी जैसे फ़ारसी के महान शायरों ने इस पाक तलाश को अपने कलाम में हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया है, और एक ऐसी गहरी और सच्ची मोहब्बत की तस्वीर खींची है जो ख़ुद की कुर्बानी की माँग करती है। इश्क़-ए-इलाही में फ़ना होना दरअसल नफ़्स-ए-अम्मारा की मौत है, दुनियावी ख़्वाहिशों की परतों से पाक होना है, और इबादत की भट्टी में तप कर ख़ालिस सोने की तरह निखर कर सामने आना है।
यह मोहब्बत कोई नरम जज़्बा नहीं, बल्कि एक आतिशफ़िशां, हमा-गीर क़ुव्वत है जो आम ज़िंदगी के ताने-बाने को पारा-पारा कर देती है, और रूह को बे-नक़ाब और बे-बस छोड़ जाती है। लेकिन, इस बे-बसी में ही इसकी सबसे बड़ी ताक़त पोशीदा है। शायर का जलना दरअसल माशूक़ की दोगाना हैसियत का मज़हर है, वह ख़ुद ही शोला है और ख़ुद ही परवाना, ख़ुद ही आशिक़ है और ख़ुद ही माशूक़, ख़ुद ही तलाशी है और ख़ुद ही मतलूब। इस तज़ाद के ज़रिए, रूह को वह आज़ादी नसीब होती है जो उसे वक़्त और मकान की क़ैद से आज़ाद करके ला-महदूद में मिला देती है।
शे’र 1:
هر لحظه به شکلی بت عیار بر آمد
دل برد و نهان شد
मेरा महबूब हर पल एक नए रूप में नज़र आता है,
दिल मोह लेता है, और फिर नज़रों से ओझल हो जाता है।
मेरा महबूब एक चमकते हुए सराब (भ्रम) की तरह है जिसके कई रंग हैं, और हर रंग में वो पहले से कहीं ज़्यादा दिलकश नज़र आता है। उसकी एक निगाह ही दिल में एक ऐसी प्यास जगाती है जो कभी नहीं बुझती। वह अचानक नुमायाँ होता है, और उतनी ही तेज़ी से ग़ायब हो जाता है, और फिर नए रूपों के साथ लौट आता है। उसका यह लगातार आँख-मचोली का खेल दिल में एक हमेशा रहने वाली तड़प पैदा करता है। उसका हर पल बदलता हुआ चेहरा, हैरानी का एक अनंत सिलसिला है, जो इंसान को उसकी असली पहचान की तलाश में और ज्यादा गहराइयों में ले जाता है।
शे’र 2:
بمیرید بمیرید در این عشق بمیرید
در این عشق چو مردید همه روح پذیرید
राह-ए-इश्क में खुद को मिटा दो, फना कर दो,
कामिल फना के बाद ही, रूह-ए-जाविदाँ नसीब होगी।
इश्क़-ए-हक़ीक़ी पूरी तस्लीम और रज़ा की माँग करता है, नफ़्स की फ़ना ज़रूरी है ताकि रूह-ए-इलाही से हमआहंगी हासिल हो। यह फ़ना नहीं, बल्कि एक नई पैदाइश है, अहंकार को छोड़कर हमेशा की ज़िंदगी से गले मिलना है। सिर्फ़ एक ऐसा दिल जो सारी गंदगी से पाक हो और सिर्फ़ इश्क़-ए-इलाही से भरा हो, हक़ीक़त के जौहर को पा सकता है। सालिक़-ए-हक़ का रास्ता फ़ना फ़िल्लाह का रास्ता है, नूर-ए-इश्क़ में डूब जाने का रास्ता है। इसी तस्लीम और रज़ा में रूह अपना असली मक़ाम पाती है, दुनियावी चीज़ों से दूर होकर वहदत-ए-इलाही में समा जाती है।
शे’र 3:
در دل و جان خانه کردی عاقبت
هر دو را دیوانه کردی عاقبت
आख़िरकार तूने मेरे दिल और जान में अपना मक़ाम बना लिया,
और आख़िर तूने उन दोनों को अपना दीवाना बना लिया।
तुमने मेरे दिल और रूह की गहराइयों में अपना हमेशा का ठिकाना बना लिया है, एक ऐसा पवित्र स्थान जहाँ नष्ट होने वाली चीज़ें हमेशा रहने वाली हस्ती से मिल जाती हैं। तुम्हारा वजूद, एक रोशनी की लौ की तरह, सारे दिमागी तर्कों को जला कर राख कर देता है, और एक ऐसी पाकीज़ा दीवानगी छोड़ जाता है जो मोहब्बत को तर्क की सीमाओं से निकाल कर एकमात्र सच्चाई बना देती है। वह दिल जो कभी ख्वाहिशों का ठिकाना था, अब एक ऐसी आग में जल रहा है जो कभी ठंडी नहीं पड़ती, और वह रूह जो कभी दुनियावी जंजीरों में कैद थी, आज इबादत के असीम आसमान में आज़ादी से उड़ रही है। इस मिलन में, दोनों का रूप बदल जाता है, कभी भटकता हुआ तो कभी मिलता हुआ, कभी टूटा हुआ तो कभी पूरा, हमेशा तेरे इश्क की मस्ती में मस्त।
शे’र 4:
هر که را جامه ز عشقی چاک شد
او ز حرص و عیب کلّی پاک شد
जिस किसी का पैरहन इश्क की सोज़िश से तार-तार हुआ,
वह लालच और सारे दोषों से बिल्कुल पाक हो गया।
इश्क़-ए-इलाही की आगोश में, वो दिल जो जज़्बात की तीव्रता से टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, पाकीज़गी पा लेता है, लालच और सभी कमियों की ज़ंजीरों से आज़ाद हो जाता है। मोहब्बत, अपने सबसे शुद्ध रूप में, दुनियावी ख़्वाहिशों की परतों को उतार फेंकती है, रूह को नंगा और बोझ से मुक्त कर देती है। इसी कमज़ोरी और विनम्रता में इंसान को असली आज़ादी मिलती है, एक ऐसी हालत जहाँ सारी ख़ामियाँ ख़त्म हो जाती हैं, और वजूद का सार सामने आ जाता है। इश्क़-ए-इलाही कोई नरम और कोमल स्पर्श नहीं, बल्कि एक आग की तरह है जो ख़ुदी के ताने-बाने को चीर कर अंदर के नूरानी सार को उजागर करती है। इस मुक़द्दस मिलाप के ज़रिए, रूह हर तरह की गंदगी से पाक होकर, हमेशगी की आगोश में उड़ान भरने लगती है।
शे’र 5:
ز همه خلق رمیدم ز همه بازرهیدم
نه نهانم نه پدیدم چه کنم کون و مکان را
मैं सब लोगों से अलग हो गया, और हर बंधन से आज़ाद हो गया।
अब न मैं छुपा हूँ, न ही ज़ाहिर, तो फिर मुझे इस दुनिया और जहान से क्या लेना-देना?
इश्क़-ए-हक़ीक़ी की तलाश में, रूह दुनिया-ए-फ़ानी के हँगामों से गुरेज़ाँ हो जाती है, और हर उस क़ैद से निजात पा लेती है जो उसे जकड़ना चाहती है। यह जाहिर होने और छिपने से परे एक ऐसी हालत चाहती है, जहाँ ज़ात ला-फ़ानी में मिल सके। इस पाकीज़ा वस्ल में, ज़मान-ओ-मकाँ के पैमाने बे-मानी हो जाते हैं, क्योंकि आशिक़ एक ऐसे आलम में पहुँच जाता है जो माद्दी कायनात की हदों से आज़ाद है। यहाँ, न छिपने की ज़रूरत है, न ज़ाहिर होने की, न ही वजूद की हदबंदियों का कोई डर। आज़ाद और ला-महदूद रूह हमेशगी में जज़्ब हो जाती है, और बारगाह-ए-इलाही में अपना असली ठिकाना पा लेती है।
शे’र 6:
من غلام قمرم، غیر قمر هیچ مگو
پیش من جز سخن شمع و شکر هیچ مگو
मैं इस चाँद का गुलाम हूँ, मेरे सामने इस चाँद के सिवा किसी और का ज़िक्र न करो,
और मेरे सामने रोशनी और मिठास के सिवा कोई और बात न करो।
इश्क़-ए-इलाही की रौशन वादी में, दिल पूरी तरह माशूक़-ए-अज़ली के सामने सर-ए-तस्लीम झुका देता है, और उस रोशन हस्ती, जिसका प्रतीक चाँद है, का एक सच्चा ख़ादिम बन जाता है। यह दिल सिर्फ़ उस नूर की पाकीज़गी का तलबगार होता है, और हर उस चीज़ को रद्द कर देता है जो उसकी नूरानी हक़ीक़त से तवज्जो हटाती है। यहाँ, ज़बान से अदा होने वाले अल्फ़ाज़ में शक्कर की मिठास और शमा की लौ की गर्मी होनी चाहिए, क्योंकि सिर्फ़ ऐसे ही अल्फ़ाज़ इस मुक़द्दस रिश्ते के जौहर की तर्जुमानी करते हैं। यहाँ, रूह अपनी मंज़िल-ए-मक़सूद बंदगी में पाती है, और दुनियावी और फ़ानी चीज़ों से मुँह मोड़ लेती है। इस गहरी इबादत में, माशूक़ जो हुस्न, नूर और मिठास का मज़हर है, उसके सिवा किसी और चीज़ की गुंजाइश नहीं होती।
शे’र 7:
سخن رنج مگو، جز سخن گنج مگو
ور از این بیخبری رنج مبر، هیچ مگو
रंज और ग़म की बातें न करो, सिर्फ़ गंज-ए-इरफ़ान की बातें करो,
और अगर तुम इससे अनजान हो, तो फिर ख़ामोश रहो, कुछ मत कहो।
इश्क़-ए-इलाही के पुर-नूर सफ़र में, रूह सिर्फ़ दिल के छुपे हुए ख़ज़ानों को तलाश करना चाहती है, और दर्द-ओ-ग़म की बात करने से एकदम दूर हो जाती है। यह एक ऐसा मुक़द्दस रास्ता है जहाँ अल्फ़ाज़ की क़ीमत बहुत ज़्यादा होती है, यह आपसी राब्ते की गहराइयों और वजूद की लाजवाब ख़ूबसूरती को शक्ल देते हैं, ताक़त देते हैं। रंज-ओ-ग़म की बात करना इस पाकीज़ा बंधन के जौहर से इनकार है। अगर कोई इस हक़ीक़त को समझने से क़ासिर है, तो ख़ामोशी इख़्तियार करना अफ़ज़ल है, क्योंकि ख़ामोशी इस रूहानी सफ़र की हुरमत को बरक़रार रखती है। इश्क़-ए-इलाही ख़ुशी और फ़रावानी के नूर में परवान चढ़ता है, और सिर्फ़ वही लोग इसके राजों को पा सकते हैं जो इसके अनमोल ख़ज़ानों को दिल-ओ-जान से अपनाते हैं।
इश्क़-ए-इलाही वह लाजवाब रिश्ता है जो कायनात के वजूद में बसा हुआ है, एक ऐसी ताक़त जो ज़मान-ओ-मकां और दुनियावी सूरतों से परे है। यह तलाश करने वाले के दिल में एक ख़ामोश राज़ है, वह नूर-ए-तजल्ली है जो रूह के सफ़र को रोशन करता है। इसके हुज़ूर में, फ़ानी हस्ती, ला-फ़ानी हक़ीक़त में समा जाती है, और नफ़्स-ए-अम्मारा इबादत की लपटों में दोबारा जन्म लेता है। यह मोहब्बत दुनियावी क़ायदों की पाबंद नहीं है; यह एक ला-महदूद समंदर है, एक ऐसी मुक़द्दस आग जो रूह को पाक़ीज़ा बना देती है। इश्क़-ए-इलाही को जानना दरअसल ख़ुद को पूरी तरह सुपुर्द कर देना है, नफ़्स की मौत और हमेशगी की बेदारी है। यह एक ऐसी तड़प और तक़मील का सफ़र है, जिसमें हर लम्हा एक इंकिशाफ़ है, और हर सांस एक दुआ। आख़िरकार, इश्क़-ए-इलाही हर मौजूद चीज़ का जौहर है, सारे हुस्न-ओ-जमाल का सरचश्मा है, और वह आख़िरी हक़ीक़त है जो सारी मख़लूक़ात को अपनी ला-महदूद आगोश में समेट लेती है।
जारी है…
सुहैब नदवी
नई दिल्ली, भारत
[Email: Contact@Laahoot.com]
लाहूत हिंदी डाइजेस्ट
सोशल मीडिया पर हमसे जुड़ें:
https://www.facebook.com/LaahootHindi
https://x.com/LaaHoot
https://www.youtube.com/@LaahootTV
स्रोत: ये अशआर “मसनवी-ए-मअनवी” और “दीवान-ए-शम्स-ए-तबरेज़ी” से लिए गए हैं।